गूजर-एक जीवित इतिहास
गूजर (गुज्जर) मूलतः ‘गो-पालक’ थे, इसलिए उन्हें ‘गो-चर’ भी कहा जाता है। ‘गूजर’ संस्वमत शब्द है। यही शब्द बाद में बदलकर ‘गुज्जर’ हो गया। गुजरात नाम भी गूजर से ही जुड़ा है। गुजरात को गूजरों का आदि स्थान बताया जाता है।
उल्लेख मिलता है कि शुरूआत में गूजर गाय ही पाला करते थे। मगर गायों का दूध कम होने और उससे कम घी निकलने के कारण उन्होंने भैंसे भी पालनी शुरू कर दी। आज ये ‘गो-पालक’ अब भैंस-पालक बन गये हैं। शुरू में पश्चिम भारत के निवासी गूजर धीरे-धीरे सारे उत्तर-पश्चिम भारत में फैल गये। जंगलों में ही उनका निवास है, इसलिए वे ‘वन गूजर’ भी कहलाते हैं। अधिकतर गूजर मुसलमान हैं और ये जम्मू, हिमाचल और उत्तराखण्ड में फैले हुए हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हिन्दू गूजर भी हैं। उत्तराखण्ड में यह गढ़वाल से लेकर कुमाऊं की तराई तक फैले हैं। यहां यह हिमाचल से आये हैं।
पीढ़ियों से परिष्वमत होते आये इस परंपरागत पेशे ने आज इन गूजरों को एक कुशल-दक्ष ‘दुग्ध-उत्पादक’ बना दिया है। इस तरह गूजर आदि काल से चले आ रहे इस पेशे के जीवन्त इतिहास और सच्चे प्रतिनिधि हैं। इन्हें अगर हम ‘दूध उत्पादन परम्परा’ का आदि गुरू कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। जहां तक उत्तराखण्ड का सम्बन्ध है, ये गूजर दीवाली से होली तक यहां रहते हैं और फिर पेड़ों में पत्तियां कम हो जाने के कारण ये गढ़वाल के पहाड़ी इलाकों के बुग्याल (अधिक ऊंचाई पर चारे के मैदान) में जाकर अपनी भैंसों को चराते हैं। जब ये पशु गर्मियों में बुग्यालों में जाते हैं तो वहां वनस्पतिक औषधी पादप युक्त खूब हरी घास मिल जाती है। साथ ही झरनों से शुद्ध पानी भी। इस तरह हरी घास खाने से इन्हें पानी की ज्यादा जरूरत भी नहीं पड़ती। इन पशुओं के साथ कुत्ते, खच्चर तथा एक-दो गाय बकरियां भी रहती हैं।
गुज्जर मूलतः कबीलों की तरह रहते हैं, जिस तरह मनुष्य सदियों से रहता चला आ रहा है। उनके जीवन से हमें पशु पालन के तमाम तौर तरीके सीखने को मिलते हैं। यह लोग पचास से डेढ़ से दो सौ तक भैंसें रखते हैं। ये लोग चारे पर कोई खर्चा नहीं करते। यह तराई के मैदानों में पेड़ों की डाल काटकर पेड़ों की पत्तियां ही अपने पशुओं को खिलातें हैं। शाम को जब ये भैंसें अपने तबेले में आ जाती हैं तो ये उन्हें गेहूं का चोकर तथा नमक देते हैं।
हमें अपने डेयरी पशुओं के रख-रखाव में इनसे सीख लेनी चाहिए। इनके पशु दिन में पेड़ की पत्तियां खाते हैं और नदी के किनारे पानी पीते हैं। शाम के समय वह अपने तबेले में आ जाते हैं। यह अपने पशु के दूध का दोहन केवल सुबह के समय ही करते हैं। उसके बाद इनके पशु जंगल चरने चले जाते हैं। गुज्जर लोग दिन भर दूध का वितरण करते हैं। साथ में इन पशुओं के लिए चोकर तथा सूखे चारे, धान के पराल आदि का इंतजाम करते हैं। इनकी भैंसों के संग एक भैंसा भी रहता है, जो कि भैंसों के गर्म होने पर उनका नैसर्गिक गर्भादान कर देता है। एक भैंसा बीस से पच्चीस भैंसों के लिए काफी होता है।
यह गुज्जर हर साल अपने भैंसे को भी बदलते रहते हैं। अपने इन पशुओं का वह बहुत ध्यान रखते हैं। समय-समय पर गल-घोंटू आदि बीमारियों से बचाव के लिए भैंसों का टीकाकरण भी कराते रहते हैं। जिगर व पेट के कीड़ों की दवाई देते हैं। आवश्यकता पड़ने पर अब वे पशु चिकित्सक की सेवाएं भी लेने लगे हैं। गुज्जर अपनी एक-दो भैंसे नहीं बेचते। जब बेचना होता है तो दूसरे गुज्जरों को पूरा तबेला ही बेच देते हैं। पैसे कमाने में इनकी काबिलियत का कोई मुकाबला नहीं है। बहुत सी ऐसी बातें हैं जो पशुपालकों को पशुओं के रहन-सहन के बारे में इनसे सीखनी चाहिए।
गुज्जर अपने पशुओं को बांधते नहीं हैं। उन्हें खुला ही रखते हैं। इससे पशुपालन में श्रम तथा समय दोनों की ही बचत होती है। पशुओं को खुला रखने के कई लाभ हैं। एक तो स्वतंत्रा विचरण से इनकी एक्सरसाइज हो जाती है। जिससे वो स्वस्थ रहते हैं। साथ ही झुण्ड में यह भी पता चल जाता है कि कौन सा पशु गर्मी में है। इस तरह भैंसा गर्म भैंस के पीछे लग जाता है। यही नहीं अगर कोई पशु बीमार होता है तो वह झुण्ड में पीछे रह जाता है। इस तरह यह सब चीजें आसानी से चिन्हित की जा सकती हैं।
इन लोगों को बछड़े तथा कटियों को पालने में भी कोई दिक्कत नहीं होती, क्योंकि ये सुबह दुग्ध दोहन के बाद से शाम तक का सारा दूध इन्हें ही पिलाते हैं। रात का दूध ही यह निकालते हैं। रात को ये कटे-कटियों को बांध देते हैं। डेयरी पशुओं को खुले में रखने से ये चिन्ता नहीं होती कि भैंस धूप में रहना चाहती है या छांव में। यही नहीं, दाना या पानी सब कुछ वह अपनी इच्छानुसार ग्रहण कर सकती है। इस तरह इनकी इन सारी पत्तियों को हम अपने ‘गाय-प्रबन्धन’ में इस्तेमाल कर सकते हैं। उदाहरण के लिए ये लोग पशुओं को दूध निकालते समय ही बांधते हैं। बाकी समय इनके पशु खुले रहते हैं।
खुले बाड़े में प्रत्येक पशु को करीब अस्सी से एक सौ वर्ग फीट की जगह मिली रहती है, जिसमें से पचास वर्ग फीट में पेड़ों की छांव होती है। भैंसों को खुले रखने का एक लाभ यह भी है कि कभी अगर छप्पर वगैरह में आग लग जाय या आंधी-तुफान से उड जाये तो इन पशुओं को हानि होने की सम्भावना कम रहती है। इन पशुओं के लिए भूसा व पुआल देने के लिए नाद होती है, जिसे ढ़ाई फीट प्रत्येक पशु के हिसाब से जगह दी जाती है। इन पशुओं के लिए पानी का कोई प्रबन्ध नहीं होता है। ये पशु नदी में जाकर पानी पीते हैं और वहीं नहाकर अपने को ठंडा रखते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि पशुओं के रख-रखाव में हमें गुज्जरों के कुशल प्रबंधन से सीख लेनी चाहिए और उसे व्यवहार में अपना कर स्वावलंबी बनना चाहिए।