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भैंसों का इतिहास एवं परिचय

UK Atheya / Buffalo, Buffalo General Information /

जनसंख्या के आधार पर तथा ग्लोबल वार्मिंग की वजह से दुग्ध उत्पादन में कमी की सम्भावनओं को देखते हुए मुर्रा भैंस का दूसरी नस्ल की भैंसों से सम्वर्धन कराकर नई नस्ल की भैंस उत्पन्न की जा रही है। जिनका प्रचार दूध और मांस के लिए दक्षिणी यूरोप के देशों में हो रहा है।

भैंस को खुरपक-मुंहपक, मेडकाऊ बीमारी नहीं होती है। तथा भैंस का दूध ए2 केसिन वाला होता हैं तथा यह दूध अधिक पौष्टिक और चिकनाई वाला होता है। इसलिए यह मिठाई, दही व मुजरेला चीज बनाने में उपयोग होता है। यह बाढ़ आने पर भी पानी में तैर कर जीवित रह जाती है। तथा भैंस को धान की खेती में जीवित ट्रैक्टर के रुप में इस्तेमाल किया जाता है।
भैंसो का प्रयोग खेती-बाडी में अनाज व गन्ने ढोनें में किया जाता है। यह 10 से 12 व्यांत तक आसानी से औसतन 8 से 10 लीटर दूध प्रतिदिन देती है।
गौ-वध पर प्रतिबन्ध के कारण मांस से आय के लिए पुरानी भैंस तथा भैंस के बच्चे आसानी से बिक जातें है। जिस वजह से भारत, दूनिया में भैंस के मांस निर्यात करता है। इस निर्यात वेतनाम है।
भविष्य में अनुमान ये है कि भैंस ही दुग्ध उत्पादन व मांस उत्पादन के लिए खेती में आय के लिए साहयक पशु होगा। तथा गाय केवल सूखे प्रदेशों में ही विचरण करेगी। धीरे-धीरे खेती के यांत्रिककरण के कारण भैंस ही दुग्ध उत्पादन तथा आय की वृद्धि का प्रमुख स्रोत होगा। सीमांत कृषक आज की तारीख में चारा उत्पादन करके दैनिक आय के लिए दूध से वर्मीकम्पोस व गोबर से गोबर गैस पर अधिक निर्भर है।
भैंस महिस का अभ्रंस है। महिसासुर का वर्णन कापफी आता हैं, कुछ लोग महिसासुर की पूजा भी करतें है। कहा यह भी जाता है। कि यमराज की सवारी भी भैंसा ही है। दक्षिणी भारत के आंध्र प्रदेश में महिसामती तथा महिसा मण्डल नाम के स्थान भी है। भैंस का दुग्ध उत्पादक पशु के रूप में 5000 वर्ष पूर्व सिंधु घाटी की सभ्यता में हुआ। विश्व में सबसे ज्यादा भैंस एसिया में पाली जाती है। भैंस रखने में भारत का प्रथम तथा पाकिस्तान व चीन का भैंस का स्थान दूसरा है। दक्षिणी एशिया जैसे मलेशिया, इंडोनेशिया, सिंगापुर में स्वम्प कीचड में पलने वाली भैंस पाली जाती है। इनको उन स्थानों में धान का ट्रैक्टर भी कहते है। ये ट्रैम्प भैंस, खेती तथा मांस उत्पादन में प्रयोग की जाती हैं। इसका दुग्ध उत्पादन, सिंधु घाटी वाली नदि में पलने वाली भैंस से काफी कम है।
कुछ समय से पूर्वी यूरोप के देश जैसे रुमानिया, बुलगेरिया, तथा इटली में भैंस पालने का प्रचलन बढ रहा है। इसके साथ-साथ दक्षिणी अमेरिका तथा अमेरिका के दक्षिण भाग में इसके पालन को महत्त्वता दी जा रही है। इसका मुख्य कारण यह कि भैंस को खुरपक- मुंहपक तथा मेड काऊ की बिमारी नहीं होती है। इसके साथ-साथ इसका दूध ए2 केसिन वाला होता है। तथा यह पशु सूखे चारे पर आसानी से पाला जा सकता हैै।
उपरोक्त कथन से यह ज्ञात होता है कि एक स्वंप बफैलों (कीचड़ में रहने वाली) होती है और रीवराइन (नदि में रहने वाली) होती है। स्वंप बफैलों के डीएनए 48 क्रोमोसोम और रीवराइन के डीएनए 50 क्रोमोसोम होते हैं। लेकिन इन दोनों के क्राॅस से उत्पन्न संतान से नर बधिया होते है। गाय और भैंस का क्राॅसिंग नही होती है। क्योकि गाय के डीएनए में 60 क्रोमोसोम होते है। परन्तु अमेरिका का बायसन जिसके 60 क्रोमोसोम होते है, वह गाय से क्राॅस करके जो संतान उत्पादित करता है, उसे कटैलो कहते है।
भारत विश्व का सबसे अधिक भैंस के मांस का निर्यात करता हैं। तथा यहां का सबसे ज्यादा मांस वेतनाम को जाता है।

भैंस के विषय में पौराणिक किवदन्ती

दन्त कथा यह हैं कि रम्भा नाम के राक्षसो के राजा को भैंस से प्रेम हो गया था और उसने उस भैंस से शादी कर ली जिससे महिसासुर की उत्पत्ति हुई जिसके सिर में भैंस के सींग थे वह अधिक शक्तिशाली था तथा उसने अपनी पूजा के बल पर यह वर्दान ले रखा था कि उसे कोई पुरुष न मार सके इसलिए उसने देवताओं को मारना शुरु कर दिया। देवताओं ने दुर्गा की उत्पत्ति की जिसने महिसासुर का वध किया। इसलिए दूर्गा को आज भी पूजा जाता है।
और यह घटना 245 ईसवीं पूर्व जो कि सम्राट अशोक के राज्यकाल में महिसा मण्डल नामक स्थान पर हुआ। इसी के नाम पर यहां का नाम मैसूर पडा। दूर्गादेवी ने महिसासुर को दशहरे के दिन मारा था इसलिए यहां दशहरा बडी धूम-धाम से मनाया जा रहा है।

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