यह मूलरुप से अफ्रीका में पाया जाने वाला पक्षी है। यह तीतर प्रजाति का पक्षी है। इसका वजन 1 किग्रा से 1.5 किग्रा हो जाता है।
यह अब विश्व के सभी देशों में पाला जाता है। भारत में यह 50 के दशक में ईसाई पादरियों द्वारा बरबरी बकरियों के साथ काशगंज में बरबेरा, उत्तरी अफ्रीका से लाया गया। यह पक्षी बहुत कम कीमत में पाला जा सकता है। तथा इसे कोई खास बिमारी नहीं लगती है।
यह पक्षी दीमक, कीड़े-मकोडे एवं घास खाता है। तथा यह झुण्ड में रहना पसंद करता हैं और यह पृथ्वी से ऊपर मचान या पेड़ो की डाल पर बैठना पसंद करता है। यह 6 फीट ऊंची जाली से उडकर बाहर निकल जाता है। यह अगर पैदा होते ही घर में रहता है तो यह घर में रह लेता हैं। अन्यथा यह उड जाता है।
इस पक्षी को बाज, उल्लू, कुत्ता, घड़ियाल, बिल्ली और आदमी आदि से रात में खतरा रहता है। यह पक्षी किसी अनजान व्यक्ति व जानवर के आने पर सचेत हो जाता हैं तथा आवाज करता हैं। इसलिए यह पहरेदारी का भी काम करता है। परन्तु इसका यह शोर करना, पडोसियों के लिए अतराज का कारण भी हो सकता है।
यह पक्षी गर्मियों में जमीन पर अपना घोंसला बनाकर 10 से 15 अण्डे देता हैं और फिर उन पर बैठकर बच्चे निकालता है। इसके बच्चे मुर्गी के 21 दिन के विपरीत 1 माह में निकलते हैं। इनके बच्चों को ठंड से बचाने के लिए पहले सप्ताह में 95 डिग्री फेरानाइट पर रखना पड़ता है। फिर प्रति सप्ताह क्रमशः 5 डिग्री पफेरानाइट तापक्रम कम करके 6 सप्ताह बाद इनको सामान्य तापक्रम पर रखा जाता है।
इनकी मां अपने बच्चों की ज्यादा फिक्र नहीं करती है। इसके बाद इसके बच्चों को गर्मी की आवश्यकता नहीं होती है और वह उड़कर ऊपर बैठने की कोशिश करतें है। इसके बच्चों को 6 सप्ताह तक मुर्गी का दाना देना पडता है। इसके बाद यह कीडे़-मकोडे़ तथा घास के बीज खाकर जिवित रह लेता है।
यह पक्षी चूहों, छपकली, तथा छोटे सांप को भी खा जाते है। इनके 6 से 8 पक्षी रखना काफी है। क्योंकि ये अंडों की पैदावार के लिए नहीं रखे जाते है। परन्तु यह कीडें-मकोडे, चूहें, सांप से बचाव के लिए रखें जाते है। इनका विशेष उपयोग कीटनाशकरहित आॅरगैनिक सब्जी तथा फल उत्पादन में होता है। क्योंकि यह मुर्गी की तरह फल-फूल व सब्जी को नहीं खाते, बल्कि कीडे़-मकोडे़ आदि को खातें हैं।
यदि अगर आप इन्हें मुर्गियों के साथ रखतें हैं तो चूहे द्वारा मुर्गी के दाने को बचाया जा सकता है। इस प्रकार से अनाज या जानवरों के दाने के भंडारन में घुन तथा दीमक द्वारा होने वाले नुकसान को बचाते है। दीमक इनका प्रिय भोजन हैं तथा दीमक से छुटकारें के लिए सब्जी तथा फल-फूल उत्पादन में लाभकारी है।
गिनीफाऊल यदि बचपन से पाले जायें तब ये शाम को घर वापस लौट आते है। लेकिन यदि आप बडें गिनीफाऊल लाते हैं तो वह घर वापस नहीं आते है और पेड़ की ऊंची डालियों पर झुंड में बैठकर अपनी रात बिता देते हैं। जहां पर इनको बिल्ली और उल्लू का शिकार बनना पडता हैं। यह अंडे जमीन पर गुप्त स्थान पर देते है।
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इनको बचपन से रखना आवश्यक होता है। वरना ये वापस घर लौटकर नहीं आते
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ये उड़ान भरकर पेड़ों की ऊंची से ऊंची डाल पर अपने को सुरक्षित मानते है।
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गिनीफाऊल का अंडा मुर्गी के अंडे की तुलना में आधा होती हैं।
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ये मुर्गी की तरह अपने बच्चों की ज्यादा फिक्र नहीं करते है।
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ये काले और सफेद दोनों रंग के होते है। तथा ये सांप को घेरकर मारते हैं और खा जाते हैं। ये फसलों नुकसान नहीं पहुंचाते बल्कि उन पर लगने वाले कीटों को खातें है। इसलिए ये मुर्गी से भिन्न होते है। ये आॅरगैनिक खेती में लाभदायक होते है।
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गिनीफाऊल को मार कर खाता हुआ बडा बाज अर्थात बाज इसका शत्रु होता है।
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लोमड़ी भी इसकी शत्रु होती है।
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यह बत्तक व मुर्गी के साथ आसानी से रह लेता है।
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गिनीफाऊल हमेशा जमीन से ऊपर बैठते है और ये 5 से 6 फीट ऊंचाई तक उड़ सकेते है।